दो दिन पहले NDTV पे ऐक कार्यक्रम देख रहा था जिसका विषय था - "क्या हिन्दी हास्य कवि सम्मेलन अब इतना लोकप्रिय नहीं रह गया है" | मंच पर बैठे हुऐ साजिद खान ने ऐक वक्त यह का डाला की "भारत में श्रोतागण अनपढ़ और जाहिल हैं (मैं अनुवाद नहीं कर रहा हूँ, उन्होनें यह हिन्दी में ही बयान किया)| बडे शहरीवासियों का, खासकर मुंबईवासियों का यह मानना है कि वे बुद्धिजीवी हैं और छोटे शहरों और गावों में रहने वाले सब जाहिल हैं| साजिद खान स्वयं को बहुत उम्दा हास्यकार मानते है जबकी मैं सोचता हूँ कि वे सिर्फ फूहड़ हास्य ही कर पाते हैं| उन्हें करारा जवाब दिया हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा नें (चार लाईना होशरत वाले) की स्वयं पर हास्य (self deprecating humour) हास्य है, व्यक्तिविषेश हास्य (जो साजिद खान हमेशा से करते आएँ है) फूहडपन है| मुझे साजिद खान की सोच पर तरस आता है की वे अपनी अमैलिकता एवं हास्यरस के अभाव को श्रोता की जाहिलता पर थोपना चाहते हैं| मैं नहीं मानता की वे कभी भी 'चुपके चुपके', 'जाने भी दो यारों' या हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा की ऊचाईयों की छू पायेंगे|
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